ज्योतिष क्या है ?
आकाश की ओर दृष्टि डालते ही
मस्तिष्क में उत्कण्ठा उत्पन्न होती है कि ये ग्रह नक्षत्र क्या वस्तु है़ ? तारें क्यों टुटकर गिरतें है ? सूर्य प्रतिदिन पूर्व दिशा में ही क्यों उदित होता है ? ऋतुऐं क्रमानुसार क्यों आती है आदि।
मानव स्वभाव ही कुछ ऐसा है कि वह जानना चाहता है - क्यों ? कैसे ? क्या हो रहा है ? और क्या होगा ? यह केवल प्रत्यक्ष बातों को ही जानकर संतुष्ट नही होता, बल्कि जिन बातों से प्रत्यक्ष लाभ होने की संभवना नही है, उनाके जानने के लिए भी उत्सुक रहता है। जिस बात को जानने की मानव को उत्कट
इच्छा रहती है, उसके अवगत हो जाने पर उसे जो आनंद मिलता
है, जो तृप्ति होती है उससे वह निहाल हा जाता है।
ज्योतिष शास्त्र की व्युत्पति- ज्योतिषं सूर्यादि ग्रहाणां
बोधकं शास्त्रम् अर्थात् सूर्यादि ग्रहों के विषय में ज्ञान कराने वाले शास्त्र को
ज्योतिष शास्त्र कहते है। इसमें प्रधानतः ग्रह, नक्षत्र, धूमकेतु आदि ज्योतिः पदार्थो का
स्वरूप, संचार, परिभ्रमण काल, ग्रहण और स्थिति, प्रभृति, समस्त घटनाओं का निरूपण एवं ग्रह नक्षत्र की गति, स्थिति और संचारानुसार शुभाशुभ फलों का कथन किया जाता है। मनीषियों का
अभिमत है कि आकाश मण्डल में स्थित ज्योति संबंधी विविध विषयक विद्या को
ज्योतिर्विद्या कहते है। ज्योतिष शास्त्र में गणित और फलित दोनों प्रकार के
विज्ञानों का समन्वय है। आधुनिक समय में इस शास्त्र को 5 रूपों में बांटकर अध्ययन किया जा रहा है।
ज्योतिष शास्त्र के प्रर्वतक- संपूर्ण ज्योतिष शस्त्र को
वेदो का नेत्र कहा गया है। भारतीय संस्कृति की आत्मा को समझने के लिए वेदों का
अध्ययन मनन और चिन्तन परम आवश्यक है। जिस पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाण या
अनुमान, प्रमाण से
नही होता है। उसकी प्रतीति वेदों के आधार पर होती है। यही वेदों का वेदत्व या
प्रकाशकत्व कहा जाता है। सनातन संस्कृति का आधार आचार है। आचार या आचरण ही
संस्कृति व धर्म का मूल है। तथा समसत आचार यज्ञ प्रधान होने से काल ज्ञान पर
निर्भर है। व्यवहार में दैनिक कियाकलापांे का सूयोंदय, सूर्यास्त, दिनरात, तिथि, मास, पक्षादि के बिना संपन्न नहीं हो सकते है। इनके विश्ष्टि काल संपादन के
लिये ज्योतिष शास्त्र आवश्यक है। ऋषियों, मनीषीयों, आचार्यो ने अपनी ऋतंभरा प्रज्ञा से इसे समय-समय पर परिष्कृत व शंशोधित
किया है। ज्योतिष शास्त्र के 18 महर्षि प्रर्वतक
या संस्थापक के रूप् में जाने जाते है। काश्यप् के मतानुसार इनके नाम क्रमशः सूर्य, पितामह, व्यास, वशिष्ट, अत्रि, पाराशर, काश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पौलिश, च्यवन, यवन, भृगु एंव शौनक है।
ज्योतिष शास्त्र के तीन स्कंध होते है।
प्रथम स्कंध ‘‘सिद्धान्त‘‘ - जिसमें त्रुटि से लेकर प्रलय काल तक की गणना, सौर, सावन, नाक्षत्रादि, मासादि, काल मानव का प्रभेद, ग्रह संचार का विस्तार तथा
गणित क्रिया की उपपति आदि द्वारा ग्रहों, नक्षत्रों, पृथ्वी की स्थिति का वर्णन किया गया है। इस स्कंद के प्रमुख ग्रंथ ग्रह
लाघव, मकरन्द, ज्योर्तिगणित, सूर्य सिद्धान्तादि प्रसिद्ध है।
द्वितीय स्कंध ‘‘संहिता‘‘ - इस स्कन्द
में गणित को छोड़कर अंतरिक्ष, ग्रह, नक्षत्र, ब्रह्माण्ड आदि की गति, स्थिति एंव ततत् लोकों में रहने वाले प्राणियों की क्रिया विशष द्वारा
समस्त लोकों का समष्टिगत फलों का वर्णन है। उसे संहिता कहते है। वाराह मिहिर की
वृहत् संहिता, भद्र बाहु संहिता इस स्कन्द की प्रसिद्ध
ग्रंथ है।
तृतीय स्कंध ‘‘होरा‘‘ - होरा इस स्कन्द में जातक, जातिक, मुहूर्त प्रश्नादि का विचार कर व्यष्टि
परक या व्यक्तिगत फलादेश का वर्णन है। इस स्कन्द के प्रसिद्ध ग्रंथ वृहत् जातक, वृहत् पाराशर होरशास्त्र, सारावली, जातक पारिजात, फलदीपिका, उतरकालामृत, लघुपाराशरी, जैमिनी सूत्र और प्रश्नमार्गादि प्रमुख ग्रंथ है।
दैवज्ञ किसे कहते हैं - ज्योतिष शास्त्र के ज्ञाता को ‘‘दैवज्ञ‘‘ के नाम से भी जाना जाता है। दैवज्ञ दो शब्दों से मिलकर बना है। दैव $ अज्ञ। दैव का अर्थ होता है। भाग्य और अज्ञ का अर्थ होता है जानने वाला।
अर्थात् भाग्य को जानने वाले को दैवज्ञ कहते है। वाराह मिहिर ने वाराह संहिता में
दैवज्ञ के निम्नलिखित गुण बताये है। जिसके अनुसार एक दैवज्ञ का आंतरिक व बाह्य
व्यक्तित्व सर्वर्था उदात, महनीय, दर्शनीय व अनुकरणीय होना चाहिये। शांत, विद्या
विनय से संपन्न, शास्त्र के प्रति समर्पित, परोपकारी, जितेन्द्रीय, वचन पालक, सत्यवादी, सत्चरित्र, आस्तिक व पर निन्दा विमुख होना
चाहिये। वास्तविक दैवज्ञ को ज्योतिष के तीनों स्कनधों का ज्ञान होना आवश्यक है।
ज्योतिष की उत्पत्ति का काल निर्धारण आज तक कोई नही कर सका।
क्यांेकि ज्योतिष को वेदका नेत्र माना जाता है और वेद की प्राचीनता सर्व मान्य है।
संसार का सबसे प्रचीन ग्रंथ वेद माने जाते हैं और वेद के छः अंग है।
1. शिक्षा
2. कल्प
3. व्याकरण
4. निरूक्त
5. छनद
6. ज्योतिष
मान्यताओं के अनुसार वेद ही सब विद्याओं का उद्गम है। अतः
यह स्पष्ट है कि ज्योतिष की उत्पत्ति उतनी ही प्रचीन है जितनी वेदों की।
ज्योतिष शास्त्र - एक परिचय
सामान्य भाषा में कहें तो ज्योतिष माने वह विद्या या
शास्त्र जिसके द्वारा आकाश स्थित ग्रहों,नक्षत्रों
आदि की गति,परिमाप, दूरी इत्यादि
का निश्चय किया जाता है।ज्योतिषशास्त्र लेकर हमारे समाज की धरण है कि इससे हमें
भविष्य में घटनेवाली घटनाओं के बारे में आगे ही पता जाता है। वास्तव में
ज्योतिषशास्त्र का रहस्य अथवा वास्तविकता आज भी अस्पष्ट है, या इस विद्या पर अन्धविश्वास हमें हमेशा ही भटकता रहता है। इसी विषय पर
तर्कपूर्ण विचार प्रकट कर रहा हूँ।
ज्योतिषशास्त्र वज्योतिषी के ऊपर जो लोग विश्वास करते हैं, वे अपनी आपबीती एवं अनुभवों की बातें
सुनते हैं। उन बातों मेंज्योतिषी द्वारा की गई भविष्यवाणी में सच हने वाली घटना का
उल्लेख होता है। इन घटनाओं में थोड़ी बहुत वास्तविकता नजर आती है। वहीं कई घटनाओं
में कल्पनाओं का रंग चडा रहता है क्योंकि कभी - कभार ज्योतिषी
की भविष्यवाणी सच होती है ? इस सच के साथ क्या कोई
संपर्क ज्योतिष शास्त्र का है? ज्योतिषियों की
भविष्यवाणी सच होने के पीछे क्या राज है ? ज्योतिषी
इस शास्त्र के पक्ष में क्या - क्या तर्क देते हैं ? यह तर्क कितना सही है ? ज्योतिषशास्त्र की
धोखाधड़ी के खिलाफ क्या तर्क दिये जाते हैं? इन सब
बातों की चर्चा हम जरुर करेंगे लेकिन जिस शास्त्र को लेकर इतना तर्क - वितर्क हो
रहा है ; उस बारे में जानना सबसे पहले जरुरी है।
तो आइये , देखें क्या कहता हैं ज्योतिषशास्त्र।
ज्योतिष को चिरकाल से सर्वोत्तम स्थान प्राप्त है । वेद
शब्द की उत्पति "विद" धातु से हुई है जिसका अर्थ जानना या ज्ञान है
।ज्योतिष शास्त्र तारा जीवात्मा के ज्ञान के साथ ही परम आस्था का ज्ञान भी सहज
प्राप्त हो सकता है ।
ज्योतिष शास्त्र मात्र श्रद्धा और विश्वास का विषय नहीं
है, यह एक शिक्षा का विषय है।
पाणिनीय-शिक्षा41 के अनुसर''ज्योतिषामयनंयक्षुरू''ज्योतिष शास्त्र ही सनातन वेद का नैत्रा है। इस
वाक्य से प्रेरित होकर '' प्रभु-कृपा ''भगवत-प्राप्ति भी ज्योतिष के योगो द्वारा ही प्राप्त होती है।
मनुष्य के जीवन में जितना महत्व उसके शरीर का है, उतना ही सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों अथवा आसपास के वातावरण का है। जागे हुए लोगों ने कहा है
कि इस जगत में अथवा ब्रह्माण्ड में दो नहीं हैं। यदि एक ही है, यदि हम भौतिक अर्थों में भी लें तो इसका अर्थ हुआ कि पंच तत्वों से ही सभी
निर्मित है। वही जिन पंचतत्वों से हमारा शरीर निर्मित हुआ है, उन्हीं पंच तत्वों से सूर्य, चंद्र आदि ग्रह भी
निर्मित हुए हैं। यदि उनपर कोई हलचल होती है तो निश्चित रूप से हमारे शरीर पर भी
उसका प्रभाव पड़ेगा,क्योंकि तत्व तो एक ही है। 'दो नहीं हैं। o का आध्यात्मिक अर्थ लें तो
सबमें वहीं व्याप्त है, वह सूर्य, चंद्र हों, मनुष्य हो,पशु-पक्षी, वनस्पतियां,नदी, पहाड़
कुछ भी हो,गहरे में सब एक ही हैं। एक हैं तो कहीं भी कुछ
होगा वह सबको प्रभावित करेगा। इस आधार पर भी ग्रहों का प्रभाव मानव जीवन पर पड़ता
है। यह अनायास नहीं है कि मनुष्य के समस्त कार्य ज्योतिष के द्वारा चलते हैं।
दिन, सप्ताह, पक्ष,मास, अयन, ऋतु, वर्ष एवं उत्सव तिथि का परिज्ञान के लिए
ज्योतिष शास्त्र को केन्द्र में रखा गया है। मानव समाज को इसका ज्ञान आवश्यक है।
धार्मिक उत्सव, सामाजिक त्योहार, महापुरुषों के जन्म दिन, अपनी प्राचीन गौरव
गाथा का इतिहास, प्रभृति, किसी
भी बात का ठीक-ठीक पता लगा लेने में समर्थ है यह शास्त्र। इसका ज्ञान हमारी परंपरा, हमारे जीवन व व्यवहार में समाहित है। शिक्षित और सभ्य समाज की तो बात ही
क्या, अनपढ़ और भारतीय कृषक भी व्यवहारोपयोगी ज्योतिष
ज्ञान से परिपूर्ण हैं। वह भलीभांति जानते हैं कि किस नक्षत्र में वर्षा अच्छी
होती है, अत: बीज कब बोना चाहिए जिससे फसल अच्छी हो।
यदि कृषक ज्योतिष शास्त्र के तत्वों को न जानता तो उसका अधिकांश फल निष्फल जाता।
कुछ महानुभाव यह तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं कि आज के वैज्ञानिक युग में कृषि
शास्त्र के मर्मज्ञ असमय ही आवश्यकतानुसार वर्षा का आयोजन या निवारण कर कृषि कर्म
को संपन्न कर लेते हैं या कर सकते हैं। इस दशा में कृषक के लिए ज्योतिष ज्ञान की
आवश्यकता नहीं है। परन्तु उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का विज्ञान भी प्राचीन
ज्योतिष शास्त्र का ही शिष्य है।ज्योतिष सीखने की इच्छा अधिकतर लोगों में होती है।
लेकिन उनके सामने समस्या यह होती है कि ज्योतिष की शुरूआत कहाँ से की जाये? बहुत से पढ़ाने वाले ज्योतिष की शुरुआत कुण्डली-निर्माण से करते हैं।
ज़्यादातर जिज्ञासु कुण्डली-निर्माण की गणित से ही घबरा जाते हैं। वहीं बचे-खुचे “भयात/भभोत” जैसे मुश्किल शब्द सुनकर भाग खड़े
होते हैं।अगर कुछ छोटी-छोटी बातों पर ग़ौर किया जाए, तो
आसानी से ज्योतिष की गहराइयों में उतरा जा सकता है।
क्या है ये जन्मपत्री?
वेदांग चक्षुमनीषियों द्वारा रचित चार वेद है एवं छ: वेदांग
है उनमे से छठा वेदांग ज्योतिष है इसकी व्याख्या कुछ इस प्रकार से की गई है :-
यथा शिखा मयूराणां , नागानां मणयो यथा । तद् वेदांगशास्त्राणां , ज्योतिषं मूर्धानि स्थितम् || अर्थात्-
जिस प्रकार मौर के सिर पर शिखा, सर्प के सिर पर मणि का
स्थान है उसी प्रकार वेदांगों में ज्योतिष का स्थान माना गया है|
ज्योतिष
ज्योतिष की सहायता से हम ग्रहों के पृथ्वी के जड चेतन पर
पडने वाले प्रभाव का अध्ययन करते हैं। जिस प्रकार प्रकृति में मौजूद हर जड चेतन
की तरह में कुछ न कुछ विशेषताएं होती हैं , इसी प्रकार प्रत्येक मनुष्य भी भिन्न भिन्न बनावट के होते हैं , प्रत्येक में अलग अलग क्षमता होती है , इसलिए
सबके पास सब कुछ नहीं हो सकता। भले ही सभी जड चेतन एक जैसे जीवन चक्र से गुजरते
हों , पर चूंकि मनुष्य सबसे अधिक विकसित प्राणी
है , और इसके जीवन के बहुत सारे आयाम हैं , इस कारण एक जैसे दिखने के बाद भी मनुष्य की जीवनशैली एक जैसी नहीं।
दुनियाभर में समान उम्र के लोग भी भिन्न भिन्न परिस्थितियों से गुजरने को बाध्य
होते हैं , प्रकृति के खास नियम के हिसाब से एक का
समय अनुकूल होता है तो दूसरे का प्रतिकूल ।
आज के समाज में ज्योतिष विद्द्या का अत्याधिक व्यवसायीकरण
होने के कारन इसका स्वरूप ही बदला सा लगता है मानव मात्र इसे मात्र दुखों को दूर
करने का तरीका समझता है और ज्योतिषी भी उस जातक को केवल वर्तमान दशा अन्तर्दशा के
अनुसार उपायों के द्वारा लाभ प्राप्त करने का तरीका बताता है !
जबकि यह सत्य नहीं है शास्त्रों की मानें तो हमारी जन्म
कुंडली हमारे पूर्व जन्म कृत कर्मों के आधार पर ग्रहों की स्थिति के अनुसार
शुभ-अशुभ कर्मों का लेखा जोखा दर्शाती है ! जिससे जातक वर्तमान में क्या करे क्या
न करे को जान कर क्रियमाण शुभ कर्मों के द्वारा अपना जीवन सुखी कर सकता है और
जरूरी है समाज में ऐसे ज्योतिषियों का निर्माण करना जो पूर्णतया संकारित हों
हिन्दू संस्कृति का सम्मान करते हों पालन करते हों ! वैदिक ज्योतिष विद्द्या के
मर्म को जानते हों ताकि न्यायोचित धन अर्जन के साथ-साथ जन कल्याण भी करे
हमारा उद्देश्य समाज को सु संस्कृत करना है ताकि समाज
अंदरूनी तोर परविवेकशील हो वोह सही-गलत को जान कर अपने कर्तव्यों के प्रति जागरूक
हो ताकिएक स्वच्छ समाज का निर्माण हो सके और भारत का नाम रोशन हो
इसके लिए केन्द्र निम्न प्रकार से समर्पित है
1. Cosmic
Jyotish संस्थान द्वारा निर्देशित एवं संकलित ज्योतिष शिक्षा
प्रणाली को नियमित शिक्षा के द्वारा सात्विक एवं स्वच्छ वातावरण में उच्च कोटि के
ज्ञान संपन्न “ज्योतिषी” का
निर्मान् करना !
2. समय-समय पर अनुभवी ज्योतिषियों द्वारा विद्यार्थियों को प्रशिक्षण प्रदान
करना !
3. हर रोज की समस्याएं जैसे बीमारी, धन की बे
बरकती, घर में तनाव, बच्चों
में संस्कार हीनता इत्यादि से मुक्ति पाने के लिए नित्य, मासिक एवं वार्षिक रूप में “पञ्चमहायज्ञ” युक्त “वेदोक्त जीवन शैली” को सिखाना एवं समय -समय पर इस सम्बन्ध में शिविर लगाना !
4. समय -समय पर गीता, रामायण, उपनिषद, पुराणों
एवं अन्य हिन्दू ग्रंथों आदि के अंतर्गत विद्वानों द्वारा ज्ञान-गोष्ठी का आयोजन
करना !
5. विद्यालयों में पढ़ रहे प्राथमिक, माध्यमिक एवं
मैट्रिक स्तर के विद्द्यार्थियों को हिन्दू संस्कृति से ओत-प्रोत पाठन सामग्री
निशुल्क प्रदान कर अभ्यास करवा कर परीक्षा के द्वारा जाँच कर प्रमाण पत्र एवं
पारितोषक देकर उन्हें उत्साहित करना एवं हिन्दू कर्मकांड के अंतर्गत नित्य करनीय
कर्तव्य कर्म सिखा कर उन्हें सुसंस्कृत कर उनका बोध्हिक एवं मानसिक स्तर ऊँचा
उठाना जिससे समाज से भ्रष्टाचार, व्यभिचार, रिश्वत-खोरी जैसी भयानक बिमारियों का समूल नाश किया जा सके !
6. समाज के किसी भी प्राणी के जीवन की समस्याओं के वेदोक्त पद्धति के अनुसार
जन्म कुंडली या प्रश्न कुंडली के आधार पर पूर्ण फलादेश प्रदान करना !!
हमारा मुख्या उद्देश्य साधारण समाज को दान न दिलवा कर उसे
अध्यात्मिक उन्नति के द्वारा कर्तव्य परायण बना कर इस योग्य बनाना की वह समाज की
सेवाकरे ! एवं इश्वर से मांगे, न की किसी
व्यक्ति विशेष से
इसके अलावे ज्योतिष से हमें इस बात के संकेत मिल जाते हैं
कि जातक के आनेवाले समय में किसी खास पक्ष का वातावरण सुखद रहेगा या कष्टप्रद .. इस बात का अहसास होते ही प्रकृति
के नियमों के प्रति हमारा विश्वास गहराने लगता है। चूंकि सुख और कष्ट की सीमा को
जान पाना मुश्किल है , इसलिए हमलोग किसी भी
परिस्थिति में हार नहीं मानते , अंत अंत तक जीतने
की कोशिश करते है , पर न जीत का घमंड होता है , न हार का गम । हम यह मान लेते हैं कि जो भी परिणाम हमारे सामने है , वो प्रकृति के किसी नियम के अनुसार हैं। हमने किसी समय कोई गल्ती की , जिसका फल हमें भुगतना पड रहा है। ऐसी स्थिति में हम दूसरों पर व्यर्थ का
दोषारोपण नहीं करते , प्रकृति को जिम्मेदार मानकर
अपने मन को कलुषित होने से बचा लेते हैं। हमें विश्वास हो जाता है कि यदि
जानबूझकर दूसरा हमें कष्ट दे रहा है , तो प्रकृति
उसका हिसाब किताब अवश्य रखती है और आनेवाले दिनों में उसका फल उसे स्वयं मिलेगा।
इस प्रकार प्रकृति के नियमों के सहारे आध्यात्म का ज्ञान हमें ज्योतिष के माध्यम
से मिल जाता है।